हरियाली से लहराते पहाड़, सीधे-सादे लोग और परंपराओं से बंधा जीवन—ये है छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले की पहचान। लेकिन इस शांत और सरल जीवन की सतह के नीचे, एक खामोश जंग चल रही है—सत्य बनाम छल, ईमानदारी बनाम लालच।
इस लड़ाई की शुरुआत तब हुई, जब सरगुजा के जिलाधिकारी को यह जानकारी मिली कि जिले में कुछ भू-माफिया गिरोह भोले-भाले ग्रामीणों को ठग रहे हैं। उन्होंने त्वरित कार्रवाई की—एफआईआर दर्ज करवाई, छापे मारे गए, और कई गिरफ्तारियाँ हुईं। मगर यह खेल अभी खत्म नहीं हुआ था।
ग्राम नागम, तहसील धौरपुर—यहां की मिट्टी से जुड़ा एक साधारण किसान, सुखन राम नगेसिया, इस लड़ाई का केंद्र बन गया। न पढ़ा-लिखा, न कान ठीक से सुन पाता, लेकिन अपनी ज़मीन से उसे अगाध प्रेम था। यही ज़मीन, उसे पीढ़ियों से मिली थी। लेकिन उसकी सादगी ही उसकी सबसे बड़ी कमजोरी बन गई।
10 मार्च की सुबह, दो अजनबी आए। बोले—”आयुष्मान कार्ड बनवा देंगे, बस आधार कार्ड और ज़मीन के कागज़ साथ लाओ।”
सरकारी योजना समझकर सुखन राम चल पड़ा उनके साथ, और पहुँच गया अंबिकापुर।
वहाँ, उप-पंजीयन कार्यालय में, उससे एक दस्तावेज़ पर अंगूठा लगवा लिया गया—बिना पढ़ाए, बिना समझाए। वह दस्तावेज़ था—एक बिक्री अनुबंध, जिसमें लिखा था कि उसने अपनी ज़मीन दो लाख रुपये में बेच दी है।
घर लौटने पर कुछ नहीं समझ पाया। लेकिन कुछ दिनों बाद, जब देखा कि अजनबी लोग उसकी ज़मीन पर हल चला रहे हैं, तो सन्न रह गया। विरोध करने पर उसे वो कागज दिखाया गया—रजिस्ट्री की कॉपी, जिस पर उसका ही अंगूठा था। और दावा किया गया कि उसे पैसे भी दे दिए गए हैं।
उसका मन टूट गया।
उसका विश्वास, उसकी जमीन से भी ज़्यादा हिल गया।
लेकिन अंदर एक चिंगारी अब भी जल रही थी—न्याय की चिंगारी।
सुखन राम सीधे उप-पंजीयन कार्यालय पहुँचा और रजिस्ट्री रोकने की गुहार लगाई। फिर जन-दर्शन में कलेक्टर के सामने अपनी व्यथा सुनाई—”मालिक, मैंने ज़मीन नहीं बेची। मुझे एक पैसा नहीं मिला। मुझे धोखा दिया गया है।”
कलेक्टर ने ध्यानपूर्वक सुना और तुरंत जांच का आदेश दिया।
उधर, प्रभारी उप-पंजीयक निखिल श्रीवास्तव ने बताया कि शिकायत दर्ज हो चुकी है, लेकिन दस्तावेज़ पर अंगूठा लगा होने से मामला कानूनी रूप से पेचीदा बन गया है। फिर भी यह स्पष्ट किया गया—”भू-स्वामी की सहमति और वास्तविक उपस्थिति के बिना रजिस्ट्री वैध नहीं मानी जा सकती।”
अब यह मामला एक ज़मीन की लड़ाई नहीं रहा—यह बन गई एक गरीब किसान की इंसाफ की लड़ाई, एक सच्चे प्रशासनिक अधिकारी की ईमानदारी की कसौटी, और एक ऐसे सिस्टम की जवाबदेही की मांग, जो आम आदमी की रक्षा का वादा करता है।
सरगुजा साक्षी है इस संघर्ष का।
सवाल अब यह नहीं है कि कागजों पर क्या लिखा है—सवाल यह है कि क्या एक गरीब, अनपढ़ नागरिक को भी भारत में न्याय मिल सकता है?
सुखन राम आज भी लड़ रहा है।
प्रशासन जूझ रहा है।
और पूरा सरगुजा देख रहा है—
क्या सच में कानून सबके लिए बराबर है?